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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

मिचलाहट


मिचलाहट यानी उल्टी का भाव! अंग्रेजी में जिसे कहते हैं-नॉजिआ! यह मिचलाहट या नॉज़िया मुझे तब होता है, जब मैं बंगलादेश की राजनीति के बारे में सोचती हूँ। आजकल मैंने यह सब सोचना छोड़ दिया है। लेकिन जब कभी किसी बंगाली के घर जाती हूँ, तो मुश्किल में पड़ जाती हूँ। आवामी लीग, बी एन पी, जातीय पार्टी, जमाते-इस्लामी वगैरह पार्टियों के बारे में जहाँ जिक्र छिड़ता है, मुझे उठ जाना पड़ता है। अंदर की मिचलाहट से कहीं उल्टी ही न हो जाए और अंत में कहीं कमरे के फर्श पर ही उल्टियों की धार न बहने लगे, इस डर से मैं दूसरे कमरे में जाकर चुपचाप बैठी रहती हूँ, या सीने में मुक्त हवा-बाताश भरने के लिए बरामदे में निकल आती हूँ या फिर टॉयलेट में ही जाकर खामखाह बैठी रहती थी। जब राजनीति की बातचीत ख़त्म हो जाती है, तब उस अड्डे में दुबारा आ मिलती हूँ। इसके बाद, अगर दुबारा राजनीति का जिक्र छिड़ता है, तो मैं उसे बीच में ही रोककर, उस पर घर के सदस्य से पूछती हूँ, 'अच्छा, आपके पास सूखी शुटकी मच्छी है? अगर है, तो ज़रा मिर्च-विर्च डालकर भुर्ता बनाने को कहें न खाया जाए।' या अन्यान्य मेहमानों से मुखातिव होती हूँ, 'बहुत दिनों से गाना नहीं सुना, कोई गाना छेड़िए न! ज़रा, गाना सुनूँ!' सच्ची, बंगलादेश की राजनीति पर बातचीत करने से कहीं ज़्यादा बेहतर है किसी और विषय पर कहें-सुनें! सच बात तो यह है कि गंदगी में उतरने का मेरा मन भी नहीं होता।

ओवरब्रिज का गार्डर सिर पर टूट गिरा, इंसान मर गया! सड़क-दुर्घटना में हर दिन असंख्य मौतें! बलात्कार! खून! दुर्नीति! संत्रास, दहशतगर्दो का चुनाव में खड़े होना-वगैरह-वगैरह ख़बरें, मैं यथासंभव नज़रअंदाज़ कर जाती हूँ। अखबार में मैं और-और खबरें पढ़ती हूँ। यूँ नज़रअंदाज़ करने की वजह भी है। वजह यह है कि ये सब ख़बरें पढ़ने से रक्तचाप बढ़ जाता है। मन मारे पड़े रहो। मारे फिक्र के अनिद्रा रोग का शिकार होना रोजमर्रा का किस्सा हो जाएगा। मैं जानती हूँ, ये सब बंद करने के लिए, उत्तेजित होकर, आंदोलन करना, गला फाड़-फाड़कर चीत्कार करना-इन सवसे कोई परिवर्तन संभव नहीं है। यह सब होता रहता है। होता रहेगा। किसी में भी इतनी ताकत नहीं है कि इन्हें रोक दे। तमाम दुःखद संवादों के पीछे, किसी न किसी तरह की राजनीति ज़रूर जुड़ी होती है। दुखद समाचारों के बारे में सोचने का मतलब है, राजनीति के बारे में सोचना और राजनीति के बारे में सोचते ही, मैंने तो पहले ही बताया कि मुझे क्या होता है-मिचलाहट ! ये सब दुर्घटनाएँ, दुःसंवाद पढ़-पढ़कर, कोई-कोई विरोधी राजनीतिक दल से उम्मीद लगा बैठता है। उसे लगता है कि विरोधी दल, अगर सत्ता में आ जाए, तो समस्याओं का समाधान हो जाएगा। लेकिन यह बात क्या अच्छी तरह समझ में नहीं आ रही है कि सभी पार्टियों का चरित्र असल में एक है। ये लोग एक और अभिन्न हैं। इन लोगों का सोच-विचार, फिक्र-सब-कुछ एक है। इन लोगों का दहशतगर्द चेहरा भी हूबहू एक है। किसी भी दल से उम्मीद लगाकर बैठे रहना, किसी भी असंभव कल्पना में अपने को लिप्त रखना-इसमें अपने नुकसान के अलावा और कुछ नहीं है। क्षमता में पहुंचकर, विरोधी दल ने भी, उम्मीद के गाल पर, बयासी सिक्के वजन का करारा-थप्पड़ जमा दिया।

एक वक्त था, जब ऐसा लगता था कि आंदोलन करने से समाज की हालत में परिवर्तन होगा। राजनीति में स्वच्छता आएगी। सम्पत्तियों का बँटवारा न्यायपूर्ण होगा, अमीर-गरीब, औरत-मर्द में कोई असमानता नहीं रहेगी। सबके लिए रोटी-कपड़ा-मकान होगा। सबके लिए शिक्षा-स्वास्थ्य-सुरक्षा होगी। अब मुझमें वह रूमानियत नहीं रही, क्योंकि यह बात बखूबी मेरी समझ में आ गई है कि बंगलादेश में कुछ भी किया जाए, कुछ नहीं होने का। राजनीति करने वाले लोग, विशाल, विकट दैत्य की तरह देश के सिर पर सवार हैं। उन दैत्यों ने अंडे दें-देकर बहुत सारे दैत्य-बच्चों से, देश के समूचे शरीर को भर डाला है। इन दैत्य-बच्चों के अत्याचार से आम इंसानों की ज़िंदगी दूभर हो आई है। अब स्वस्थ जीवनयापन संभव नहीं रहा। या तो दैत्यों के पाँव दबाओ या फिर दैत्य-बच्चों के दोस्त बन जाओ। इसके अलावा जीवन की सुरक्षा नैव नैव च! दुर्नीति और दुर्व्यवस्था कहाँ पहुँच गई है, जो ऐसा स्वेच्छाचार फैल गया है। मैंने तो सुना है कि दीवार से पीठ टिक जाती है, तो ‘अब तकदीर में जो बदा है' की दुहाई देते हुए सामने की तरफ दौड़ पड़ता है। यहाँ तो दीवार से पीठ कभी की जा टिकी है। अब तो दीवार तोड़कर और पीछे जाते-जाते, इंसान खड्डे में गिरा-पड़ा, दम तोड़ रहा है। फिर आगे कौन बढ़े? असल में सामने कदम बढ़ाने के लिए, अब कोई नहीं रहा, क्योंकि सामने भी मौत का जाल बिछा हुआ है। बंगलादेश की राजनीति ने देशवासियों को पीछे...और पीछे धकेलते हुए, अब तो सब्र की सीमा की दीवार तोड़कर और पीछे, और पीछे, दीवार तोड़ते हुए, उसे खड्डे में धकेल दिया है। इस खड्डे से ऊपर उठ आने की अब कोई संभावना नहीं रही।

पिछले दिनों मैंने सुना कि मेरे भाई के बेटे के लिए पंद्रह अदद गृहशिक्षक  नियुक्त किए गए हैं। बेटे को स्कूल के दस विषय बढ़ाने के लिए पंद्रह गृहशिक्षक! पहले तो मैंने सोचा कि मेरा भाई किसी दिमागी रोग का शिकार हो गया है, वर्ना ऐसी हालत क्यों होती? भाई ने बताया कि अब यही नियम है। इम्तहान में पास करने के लिए स्कली टीचरों को ही गह-शिक्षक रखना होगा। इसके अलावा अब कोई उपाय नहीं। टीचर स्कल में कुछ नहीं पढ़ाएँगे। घर आकर पढ़ा जाया करेंगे। महीने के अंत में काफी मोटी रकम वसूल करेंगे। अब तो यह हालत हो गई है कि दौलत जिसका, शिक्षा उसकी। दौलत नहीं, तो शिक्षा नहीं। वह जो कहावत है न-'जो लिखे-पढ़े, वही गाड़ी-घोड़ा चढ़े!' अब इसे बदलकर यूँ कर देना चाहिए- 'जो गाड़ी-घोड़ा चढ़े, वही लिखे-पढ़े।' कितने ही दरिद्र, मेधावी विद्यार्थी, रुपयों के अभाव में शिक्षा-अर्जन से वंचित रह जाते हैं! मुमकिन है, इनमें से कितने ही किसी दिन बड़े दार्शनिक या वैज्ञानिक हो सकते थे! मुमकिन है, यही लोग देश का भविष्य उज्ज्वल कर सकते थे। शिक्षक हमेशा ही एक आदर्श का नाम रहा है। देश में भले सभी लोगों का चरित्र नष्ट हो जाए, शिक्षकों का चरित्र कभी नष्ट नहीं होता था। मुझे तो अंदेशा है कि जब टीचरों का चरित्र नष्ट होता है, तब समूची जाति का चरित्र नष्ट होना यकीन है। शिक्षकों के इस अर्थनैतिक व्यवहार की आखिर क्या वजह है? इसका भी जवाब घूम-फिरकर राजनीति तक ही पहँच जाता है। जब समूचे देश में दुर्नीति बिखरी पड़ी है, तब शिक्षक ही भला इस जाल में क्यों न फँसे? पंगु राजनीति की वजह से अर्थनीति भी पंगु हो गई है। किसी के हाथ में अस्सी, किसी के हाथ में बीस! चूँकि बीस में गुजारा नहीं होता, इसलिए कुलंगार होना यकीनी है। सिर्फ टीचर ही नहीं, जिस किसी भी पेशाजीवी को ही दुर्नीति का आश्रय लेना पड़ता है। दुर्नीति • का बाप तो ऊपरी मंजिल पर बैठा रहता है। निचली मंज़िल की नीति लेकर रहना-सहना भला कैसे संभव है?

बंगलादेश की राजनीति, तेल या गैस या हिंदू या बौद्ध या सूखा या बाढ़ वगैरह-ऐसे ही किसी न किसी विषय को लेकर खदबदाकर फटने लगती है। इन दिनों दो मरे हुए लोगों की तस्वीर को लेकर है? किसी भी दल के किसी भी नेता की तस्वीरें हमेशा सिर के ऊपर रहेंगी! किसी तस्वीर की कीमत ज्यादा होती है। किसी भी तस्वीर का कोई मोल नहीं होता-इस बात को लेकर हवा गर्म है। बिल पास हो रहा है। काली बैज लगाए, जुलूस निकाले जा रहे हैं! तूलकलाम कांड! मुझे समझ में नहीं आता कि आज के युग में ऐसी पुरानी-धुरानी रूमानियत के साथ बंगाली टिके कैसे हैं? हाय रे, तस्वीर! सुनहरे फ्रेम की तस्वीर! तस्वीर टाँगकर क्या होना है? क्या इससे देश का कुछ फायदा होता है? इंसान की हालत में कोई परिवर्तन होता है? सिर के ऊपर एक कुत्ते की तस्वीर टाँगकर भी देश बेहद खूबसूरती से चलाया जा सकता है। और सिर के ऊपर, विश्वब्रह्मांड के जनक या बिग बैंक के घोषक की तस्वीर टाँगकर भी देश बखूबी नहीं चलाया जा सकता। देश को स्वच्छ तरीके से चलाना, किसी तस्वीर पर निर्भर नहीं करता। सिर के दो हाथ ऊपर जो हैं, उसके सहारे दक्षता का प्रदर्शन नहीं किया जा सकता, दक्षता तो उसके सहारे प्रदर्शित की जाती है, जो सिर के भीतर हैं दिमाग के अंदर की चीज ही बेशकीमती होती है। दिमाग के अंदर अगर माल-मत्ता न हो, तभी इंसान बाहरी प्रदर्शन में व्यस्त होता है। अगर मुझे तस्वीरों के चुनाव का हक़ होता, तो मैं झुंडभर नंगे बच्चों की तस्वीर टाँगती। जिनके सामने छेदभरी थाली होती, बच्चे मलवे के ढेर के किनारे बैठे होते। उनकी नाक से सर्दी झर रही होती; मैला वदन, तेलहीन रूखे-सूखे बाल-न आहार नसीब है, न कपड़े! जिनके पास सिर छिपाने तक की जगह नहीं है! न शिक्षा है, न इलाज!

मैं पहले ही कह चुकी हूँ, आजकल गंदगी में उतरने का मेरा मन नहीं होता। किसी का भी झोंटा-झौटौवल देखने की भी तबीयत नहीं होती। बचपन में, मयमनसिंह की एक बस्ती में मैंने झगड़ा देखा था। दो लड़कियाँ एक-दूसरे के बाल नोच रही थीं, गाली-गलौज के साथ एक-दूसरे पर ईंट के ढेले फेंक रही थीं। यहाँ तक कि एक-दूसरे पर दाँव-बइंठी की झनझनाहट! मेरे लिए वह कुत्सित और खौफनाक दृश्य देखना संभव नहीं हुआ। मैं भागकर लौट आई और अम्मी की गोद में पनाह ली। अम्मी ने समझाया था-'ई सब झगड़ा-फसाद ना देखा कर। ई सब देखकर, मन सुंदर नाहीं रहता।' बाद में मैंने सुना कि बस्ती की उन दोनों लड़कियों के झगड़े के पीछे, दो दल मर्द थे। दोनों दल में झगड़ा था। मगर वे मर्द खुद जंग में न उतरकर उन्होंने दोनों दल की दो लड़कियों को आँगन में उतारा था। उन दोनों को सिखा दिया गया कि उन्हें क्या-क्या कहना है। वे दोनों लड़कियाँ बेभाव झगड़ती रहीं। हर रोज ही दोनों लड़कियों को झगड़ने के लिए आँगन में उतार दिया जाता था। कुछ महीनों बाद, मुझे ख़बर मिली कि उन दोनों में मेल हो गया है। अब वे लोग लड़ती-झगड़ती नहीं हैं, क्योंकि उनके झगड़ों से उनके कच्चे बच्चे भी, उसी तरह बाल नोचा-नोची, मार-पीट सीखने लगे थे। बच्चे भी एक-दूसरे का सिर फोड़ने लगे थे, घर-द्वार तोड़ने लगे थे। एक-दूसरे के घर में सेंध लगाने लगे थे। आग लगा रहे थे! उनके ऊधम से समूची बस्ती ही उजाड़ होने लगी थी। दरअसल, कुरुक्षेत्र एक-दो दिन तो सहा जा सकता है। साल-दर-साल तो नहीं सहा जा सकता न! बस्ती के दोनों दल समझ चुके थे कि अगर वे लोग यह फसाद-विवाद बंद कर दें तो बस्ती में नए घर खड़ा कर सकते हैं। बिना किसी बाधा-विघ्न के कामकाज कर सकेंगे। अपने कच्चे-बच्चों को स्कूल भेज सकेंगे। चोरी-चकारी बंद होगी। आगजनी बंद हो जाएगी। यह सिर-फुटौवल और हड्डी तोड़ना भी ख़त्म होगा। काश, मयमनसिंह की उस बस्ती के लोगों से, हमारे नेता-नेत्री भी सबक लेते तो अवाम को इतना दुर्भोग न झेलना पड़ता।

अब कहीं, कोई यह न सोच ले कि यह सब मैं अपनी सुविधा के लिए लिख रही हूँ। मैं यह सब अपनी नहीं, जन-गण की सुविधा के लिए लिख रही हूँ। वैसे मैं जन-गण में से एक नहीं हूँ। जन-गण में से एक जन होने के मामले में मुझे सुनियोजित तरीके से वंचित किया जा रहा है। काफी अर्से से मझे वंचित रखा गया है! जन-गण का दुर्भोग कम हो, तो मेरा भी दुर्भोग कम हो जाएगा। ऐसा भी नहीं है, क्योंकि में कानूनन वंगलादेश की नागरिक हूँ इसके वावजूद, चाहे जो भी पार्टी सत्ता में आती है, गैर-कानूनी तरीके से मेरे नागरिक अधिकार का उल्लंघन करती है। इसलिए जन-गण में से एक होना मेरे लिए संभव नहीं है। मुझे अपने देश की माटी पर रहने देना तो दरकिनार, पैर तक रखने में बाधा दी जाती है। आपस में जमकर झोंटा-झौटौवल करने के बावजूद मेरे मामले में हसीना और खालिदा की राय में, बाल भर भी अलगाव नहीं है। मझे लेकर देश की कटटरवादी पार्टियाँ जिस सर में गाती-बजाती रहती हैं। हसीना और खालिदा भी एक ही सुर में गाती हैं। दोनों ने ही मेरी एक-एक किताब पर पाबंदी लगा दी। एक ने 'लज्जा' जब्त की और दूसरी ने 'मेरे बचपन के दिन'। दोनों के जमाने में ही, मेरे विरुद्ध फतवा जारी किया गया..., मेरे सिर की कीमत घोषित की गई, दोनों को ही किसी फतवेबाज़ को सज़ा देने का ख्याल नहीं आया। दोनों के ज़माने में मेरे खिलाफ मुकदमा दायर किया गया। एक जन ने किया, दूसरे ने कराया। दोनों के ही शासनकाल में मेरे खिलाफ गैर-जमानती गिरफ़्तारी का परवाना जारी किया गया। दोनों के ही ज़माने में ही लोअर कोर्ट से मुझे जमानत दी गई। दोनों के ही राज में हाईकोर्ट में जमानत का नाटक चला। दोनों ने ही मुझे देशत्याग करने को मजबूर कर दिया। वाक्-स्वाधीनता के खिलाफ़ दोनों मोहतरमा की राय इस क़दर अभिन्न है कि अपना सर्वनाश होने के बावजूद मैं इस उम्मीद के झूले में झूलती रही हूँ कि काश, देश के अन्यान्य मामलों में भी वे लोग अगर ऐसी अभिन्न राय रखतीं। देश की आर्थिक-सामाजिक विकास की प्रक्रिया में वे दोनों अगर इसी तरह एकमत होती; अगर दोनों ही देश की समस्याओं पर सच ही एक होकर सोचतीं, और समाधान की कोशिश करतीं; अगर अपने स्वार्थ की फिक्र न करके, अवाम के कल्याण के लिए हिंसा, द्वेष, घृणा, विद्वेष कम से कम एक बार भुला पातीं।

काश, ऐसा होता, तो बंगलादेश के बारह करोड़ अवाम का सच ही बेहद भला होता और मेरी भी मिचलाहट ख़त्म हो जाती।



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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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